शिक्षा राष्ट्रीय प्राणधारा के साथ जुड़े
यह आवश्यक है कि देश की शिक्षा पद्धति व्यक्ति के सर्वांगीण विकास का साधन बने, राष्ट्रीय स्वाभिमान और सामाजिक प्रतिबद्धता का भाव उत्पन्न करे तथा राष्ट्रीय विकास की आवश्यकता पूरी करे। परन्तु देखने में आता है कि हमारी शिक्षा इन उद्देश्यों को पूरा करने में बहुत हद तक असफल रही है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि स्वातंत्र्यप्राप्ति के बाद देश की शिक्षा पद्धति में आमूलाग्र परिवर्तन लाते हुए उसे स्वतंत्र राष्ट्र के आदर्शों, आकांक्षाओं और आवश्यकताओं के अनुरूप ढालने का प्रयास नहीं हुआ। कुछ आयोग तथा समितियाँ बिठाई गईं और उनकी महत्त्वपूर्ण संस्तुतियाँ भी प्रस्तुत हुईं, परन्तु राजनैतिक इच्छाशक्ति के अभाव में उनको लागू करने के प्रामाणिक प्रयत्न नहीं हुए। कोठारी आयोग ने खेद प्रकट किया था कि हमारे विद्यालय और महाविद्यालय राष्ट्र पुनर्निर्माण के महान् लक्ष्य से अछूते रह गए हैं। उनका प्रतिवेदन प्रस्तुत करने के बाद भी परिस्थिति में कोई ठोस सुधार नहीं हुआ।
शिक्षा क्षेत्र में वर्तमान में दिख रही गिरावट अब तक अपनाई गई दिशाहीन नीतियों का परिणाम है। कई समितियों और आयोगों की सिफारिशों के बावजूद नैतिक व आध्यात्मिक मूल्यों पर आधारित चरित्र निर्माण की शिक्षा की सम्पूर्ण उपेक्षा की गई।
राष्ट्रीय सांस्कृतिक परम्परा के बारे में स्वाभिमान व गौरव निर्माण करने के स्थान पर उनका अपमान और अवहेलना करने वाले पाठयक्रम अपनाए गए- जैसे NCERT की पाठयपुस्तकों को, जिनमें देश की आराध्य विभूतियों एवं विभिन्न समुदायों के प्रति आपत्तिजनक टिप्पणियाँ की गई थी, मनमोहन सरकार की ओर से पुन: पाठयक्रमों में शामिल किया जाना और इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में पढ़ाई जा रही पुस्तकों में हिन्दू देवी-देवताओं के प्रति अश्लील और अपमानजनक उल्लेख करना; दिल्ली विश्वविद्यालय की पाठयपुस्तकों में भगवान श्रीराम, हनुमान, लक्ष्मण आदि आदर्श के प्रतिरूप चरित्रों को विकृत रूप में प्रस्तुत करना आदि। राष्ट्रीय मानबिन्दुओं के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न करने वाली इन दुश्चेष्टाओं और उनके पीछे काम कर रही धूर्त मनोवृत्ति की निंदा की जानी चाहिये । यह संतोष की बात है कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने NCERT की पुस्तकों से आपत्तिजनक सभी 75 टिप्पणियों को निकालने का आदेश दिया । इन सभी विषयों के संदर्भ में न्यायालयीन लड़ाई और व्यापक जनमत जागरण, दोनों के सहारे सरकार को अपने कुछ कदम पीछे हटाने के लिए बाध्य करने में 'शिक्षा बचाओ आंदोलन' की भूमिका भी सराहनीय रही।
शिक्षा के द्वारा जहाँ चरित्र निर्माण तथा शरीर और मन पर संयम साधने का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए वहाँ पुर्ववर्ती केन्द्र सरकार एड्स नियंत्रण का बहाना लेकर मासूम बालक-बालिकाओं को यौन शिक्षा देने की ओर प्रवृत्त रही। व्यापक जनविरोध, विशेषकर संतों द्वारा इसके विरोध में आवाज उठाने के परिणामस्वरूप कई राज्य सरकारों द्वारा इसे लागू न करने का निर्णय स्वागत योग्य रहा । लेकिन खेद इस बात का है कि इसके बावजूद केन्द्र सरकार अपने निर्णय पर अड़ी रही ।
पिछले डेढ़ दशक में भूमंडलीकरण के फलस्वरूप शिक्षा के व्यापारीकरण-बाजारीकरण की प्रक्रिया तेज हुई है। विदेशी शिक्षा संस्थान तेजी से अपने पाँव पसारने लगे हैं। यद्यपि अपने देश में ज्ञान के आदान-प्रदान पर कोई रोक-टोक कभी नहीं रही, तथापि वर्तमान में जिस प्रकार मात्र व्यावसायिक दृष्टिकोण से 'विदेशी शैक्षिक सेवा संस्थान' व्यापक पैमाने पर देश में आ रहे हैं वह गंभीर चिंता का विषय है। इस बात की सावधानी बरती जानी चाहिए कि उनके प्रवेश से अपने राष्ट्रीय हितों को कोई क्षति न पहुँचे।
देश के अन्दर प्रचलित निजीकरण की प्रक्रिया का लाभ उठाकर शिक्षा को भी नफाखोरी का एक माध्यम बनाया जा रहा है। शिक्षा इतनी महँगी हो रही है कि दुर्बल आर्थिक वर्गों के छात्र शिक्षा से वंचित हो जाने का और सामाजिक विषमता की खाई के बढ़ जाने का खतरा दिखाई दे रहा है। प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर बीच में पढ़ाई छोड़ने वालों की अधिक संख्या भी चिंता का विषय है। इनमें से अधिकतर बच्चे पिछड़े वर्ग के होने के कारण शिक्षा के माध्यम से सर्वसमावेशक एवं समरसतापूर्ण समाज निर्माण करने का उद्देश्य दूर ही रह जाता है। शिक्षा क्षेत्र में बढ़ते हुए थोथे अल्पसंख्यकवाद पर भी ध्यान देना होगा । अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पचास प्रतिशत मुस्लिम आरक्षण, अल्पसंख्यक शैक्षिक आयोग का गठन, अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थाओं के लिए विशेष सुविधाएँ प्रदान करना, लोकसेवा प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए बजट में मुसलमानों के लिए विशेष प्रावधान, 2008-09 के बजट में मुस्लिम छात्रों के लिए मैट्रिक-पूर्व छात्रवृत्ति इत्यादि उपक्रमों के द्वारा सरकार ने शिक्षा क्षेत्र में भी सम्प्रदाय के आधार पर विभाजक प्रवृत्ति को बढ़ावा देने का प्रयास किया ।
एक स्वतंत्र स्वाभिमान सम्पन्न राष्ट्र की प्रथम आवश्यकता है कि वहाँ की शिक्षा अपने देश की भाषाओं में दी जाये। लेकिन अपने देश में आजादी के 67 साल के बाद भी शिक्षा में अँग्रेजी का शिकंजा बरकरार ही नहीं, अपितु दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। मनमोहन सरकार द्वारा गठित 'राष्ट्रीय ज्ञान आयोग' ने भी अपनी अनुशंसाओं में अँग्रेजी भाषा को अत्यधिक महत्त्व दिया। यह स्वप्नरंजन मात्र है कि सबको अँग्रेजी पढ़ाने से ही एक ज्ञान-आधारित समाज का निर्माण हो जाएगा।
शिक्षा क्षेत्र मे ध्यान देने योग्य बातें :-
1- शिक्षा का उद्देश्य केवल जीविकोपार्जन क्षमता उत्पन्न करना न होकर देशभक्ति,सेवाभावना व सामाजिक उत्तरदायित्व का भाव उत्पन्न करना होना चाहिए।
2- बीच में पढ़ाई छोड़ने वाले छात्रों की संख्या कम करने के लिए परिणामकारी कदम उठाए जाएँ।
3- शिक्षा का माध्यम भारतीय भाषा ही होना चाहिए। साथ में राष्ट्रीय संपर्क भाषा हिंदी का उत्तमज्ञान दिया जाना चाहिए। किसी एक विदेशी भाषा के रूप में अँग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन,रूसी, जापानी, चीनी आदि का सामान्य व्यवहार लायक ज्ञान कराया जाये।
4- सरकार की विभिन्न व्यवस्थाओं में अँग्रेजी को दिया गया अनुचित महत्त्व समाप्त किया जाना चाहिए।
5- बच्चों के लिए चरित्र निर्माण करने वाली शिक्षा की आवश्यकता है, न कि यौन शिक्षा की।
6- सरकार शिक्षा के व्यापारीकरण को रोकने के लिए कारगर कदम उठाए।
7- शिक्षा क्षेत्र में पंथाधारित अल्पसंख्यकवादी भेद की नीति को सरकार अविलम्ब त्यागे।
8- शिक्षा पद्धति में राष्ट्रीय भाषाओं को, विशेषकर संस्कृत भाषा को, जो अमूल्य ज्ञान का भंडार है, उचित महत्त्व और प्राथमिकता दी जाये।
राष्ट्रीय विकास में शिक्षा का अहम महत्त्व ध्यान में रखते हुए इसे परिवर्तनशील राजनीतिक स्थितियों तथा नौकरशाही के नियंत्रण से मुक्त रखना आवश्यक है। यह आवश्यक है कि शिक्षा के बारे में समग्र विचार तथा शैक्षिक नीतियों के क्रियान्वयन की निगरानी करने हेतु एक स्वतंत्र व स्वायत्त शिक्षा आयोग का गठन किया जाये।
देश के शिक्षाविद, शिक्षक, नीति निर्माता, सभी राज्य सरकार एवं केन्द्र सरकार इस दिशा मे ध्यान केंद्रित करें कि शिक्षा व्यवस्था निर्माण करने की दिशा में ऐसे कदम उठाएँ जाये जिससे आत्मविश्वास तथा राष्ट्रीय स्वाभिमान की भावना से ओतप्रोत नई पीढ़ी का निर्माण हो, जो हर क्षेत्र में चमत्कारी सफलता प्राप्त करते हुये राष्ट्र को सर्वांगीण विकास के सर्वोच्च शिखर पर ले जाए।