"प्रत्येक राष्ट्र अपने वैभव की कामना लेकर ही प्रगति करता है। वैभव की यह कामना अत्यंत स्वाभाविक है, जिसमें कामना नहीं, उसे मानव कहना अनुपयुक्त होगा। प्रत्येक ऊँचा उठना चाहता है, आगे बढ़ना चाहता है। सुखी बनना चाहता है, किन्तु विचार का प्रश्न यह है कि यह सुख, यह वैभव, यह उत्कर्ष, इसका रूप क्या हो? हम ऊपर उठ रहे हैं, इसका मतलब क्या? बहुत बार लोग ऐसा समझते हैं कि व्यक्तिगत रूप से मेरा सम्मान बढ़ जाए तो हम ऊँचे हो जायें। परन्तु जरा गहराई के साथ सोचें तो यह बात पता लगेगी कि जिस समाज में हम पैदा हुए हैं, जिस राष्ट्र के हम अंग हैं उससे अलग होकर यह व्यक्तिगत आकांक्षा पूरी नहीं हो सकती। अगर कुछ हुआ भी तो वह अधूरा रहेगा। सर्वांगीण प्रगति अकेले नहीं की जा सकती। कारण, व्यक्तिगत जीवन नाम की चीज वास्तव में कोई चीज है ही नहीं। यह तो शायद शरीर का बंधन है जिसके कारण ऐसा अनुभव होता है कि 'मैं' हूँ।
परंतु जब हमलोग 'मैं' का विचार करते हैं तो हममे से प्रत्येक सोचेगा कि यह 'मैं' क्या है?
मेरा नाम ही लीजिए। इस दीनदयाल के साथ मेरा 'मैं' जुड़ा हुआ है। इसके साथ बड़ा मोह भी है। उसका मेरा इतना संबंध हो गया है कि नींद में भी अगर कोई मेरा नाम लेकर पुकारे तो यह मेरा 'मैं' एकदम जाग जाता है। क्योंकि उसके साथ 'मैं' जुड़ा है। परन्तु यदि गंभीरता से पूछा जाए कि यह नाम आया कहाँ से, तो पता लगेगा कि समाज में यह नाम प्रचलित है, यह नाम समाज से प्राप्त हुआ है। यह नाम केवल मेरा अपना नहीं और इसलिए जिस समाज में जो जाता है, उस हिसाब से उसे नाम प्राप्त हो जाता है।
समाज से हमारा संबंध नाम के साथ ही हो जाता है। माता-पिता का संबंध जन्म से, किन्तु नाम का संबंध एकदम समाज से जुड़ गया है। आप किस समाज के हैं, क्या बोलते हैं, यह भी ज्ञात हो जाता है।
जो भाषा मैं प्रयोग कर रहा हूँ, वह मेरी नहीं, मुझे किसी ने दी है। इसे मातृभाषा कहते हैं, क्योंकि सबसे पहले माँ ही भाषा सिखाती है। परन्तु माँ अकेले नहीं है, समाज भी है।
यह भाषा समाज से आयी, विचार करने की पद्धति समाज से आयी, अच्छा-बुरा क्या है, यह समाज से आया, मेरे मन में किस चीज से समाधान होगा, यह भी समाज से आता है। समाज का एप्रिसिएशन, समाज की सराहना, आदमी को बहुत बड़ी लगती है। लोग व्यक्तिगत मान-सम्मान के भूखे रहते हैं।
राष्ट्र के गौरव में ही हमारा गौरव है। परन्तु आदमी जब इस सामुहिक भाव को भूलकर अलग-अलग व्यक्तिगत धरातल पर सोचता है तो उससे नुकसान होता है। जब हम सामूहिक रूप से अपना-अपना काम करके राष्ट्र की चिंता करेंगे तो सबकी व्यवस्था हो जाएगी। यह मूलभूत बात है कि हम सामूहिक रूप से विचार करें, समाज के रूप में विचार करें, व्यक्ति के नाते से नहीं। इसके विपरीत कोई भी काम किया गया तो वह समाज के लिए घातक होगा। सदैव समाज का विचार करके काम करना चाहिए।
हमारा आर्थिक, राजनैतिक, आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास सब कुछ समाज के साथ जुड़ा हुआ है।
हिमालय की गुहा में योगाभ्यास करके मुक्ति नहीं मिल सकती, योगाभ्यास भले ही हो जाये। मुक्ति भी व्यक्तिगत नहीं सामाजिक है, समष्टिगत है। जब समाज मुक्त होगा, ऊँचा उठेगा तो व्यक्ति भी। भगवान ने भी अवतार लिया तो धर्म की रक्षा के लिए......। भगवान कृष्ण ने तो जीवन-भर कार्य किया, उन्होंने सम्पूर्ण समाज को अपने सामने रखकर कर्म किया।
निष्कर्ष यह है कि समाज के लिए काम, भगवान का काम है। राष्ट्र की भक्ति यानि समाज की भक्ति, यही वास्तव में भगवान की भक्ति है।
वास्तव में समष्टिवाद यह धर्म है, राष्ट्रवाद यह धर्म है। व्यक्ति के लिए और व्यक्ति का ही विचार करके किया गया कार्य अधर्म है। राष्ट्र का विचार करके जो कुछ भी किया जाएगा वह धर्म होगा।
संगठित कार्यशक्ति निश्चित रूप से विजयशाली होती है। इस बात को समझकर हम चलें।सम्पूर्ण समाज मे यही एक भाव पैदा करना है। ........ राष्ट्रीयता के बाद में प्रजातंत्र आता है। राष्ट्रीयता के बाद ही हर कोई तंत्र आता है। यदि राष्ट्रीयता कमजोर पड़ी तो प्रजातंत्र चल नहीं सकता, पूँजीवाद चल सकता है, हरेक वाद चल सकता है।
सभी गड़बड़ियाँ राष्ट्रभाव के अभाव के कारण होती हैं। राष्ट्रवाद रहेगा तो पूँजीवादी भी देशहित में निर्णय लेगा। दुर्भाग्य की बात है कि इस देश के लोग इस बात का विचार नहीं करते। अपना वैभव चाहते हो तो इस बात को समझो कि यह अपना राष्ट्र है, हमें इसका विचार करना है। उसी का संस्कार अपने मन में उत्पन्न करना है। राष्ट्र के नाते जो कार्य हों सब हमे करना है। इसमें किसी प्रकार का भेदभाव उत्पन्न नहीं होना चाहिए : क्योंकि प्रवृत्ति भेदभाव उत्पन्न करती है।
हरेक अपने प्रान्त, जाति के नाते खड़ा दिखाई देता है, राष्ट्र को भूल जाते हैं। राष्ट्र का विस्मरण हुआ तो राजनीतिक दल नहीं चल सकता। आखिर राजनीति तो राष्ट्र के लिए ही है। राष्ट्र को भूल गए तो व्यापार नहीं चल सकता, राष्ट्र को भूल गए तो विद्या-बुद्धि किसी की कीमत नहीं रहेगी। राष्ट्र के स्मरण से सबका मूल्य बढ़ जाता है। राष्ट्र के नाते खड़े होने से व्यक्ति की कीमत बढ़ जाती है। राष्ट्र हित का महत्व इसी कारण होता है।
अपने देश मे बहुत से लोग मिलते हैं जो कहते हैं कि देश के लिए सबकुछ है परन्तु देश के लिए जब काम करने का मौका आता है तो कहते हैं जान हाजिर है। जान ले लीजिए, बाकी सब छोड़ दीजिए।
सच बात यह है कि हम देश के लिए सदैव कुछ भी करने को तत्पर हो सकें, यह बात सहज साध्य नहीं। इसके लिए मन पर सतत संस्कार पड़ने की आवश्यकता होती है। चार लोग मिलकर एक निर्णय से कार्य कर सकें, यह बात सहज साध्य नहीं। इसके लिए संस्कार, शिक्षण और आदत की जरुरत होती है। यदि राष्ट्रभाव हमारे सामने रहेगा तो हम सब मिलकर काम कर सकेंगे।"
तिथि 4 फरवरी, 1968 (बरेली संघ-शिविर में दिया गया अंतिम भाषण)