Tuesday, August 8, 2017

राष्ट्र के नाते खड़े होने से व्यक्ति की कीमत बढ़ जाती है : दीनदयाल

"प्रत्येक राष्ट्र अपने वैभव की कामना लेकर ही प्रगति करता है। वैभव की यह कामना अत्यंत स्वाभाविक है, जिसमें कामना नहीं, उसे मानव कहना अनुपयुक्त होगा। प्रत्येक ऊँचा उठना चाहता है, आगे बढ़ना चाहता है। सुखी बनना चाहता है, किन्तु विचार का प्रश्न यह है कि यह सुख, यह वैभव, यह उत्कर्ष, इसका रूप क्या हो? हम ऊपर उठ रहे हैं, इसका मतलब क्या? बहुत बार लोग ऐसा समझते हैं कि व्यक्तिगत रूप से मेरा सम्मान बढ़ जाए तो हम ऊँचे हो जायें। परन्तु जरा गहराई के साथ सोचें तो यह बात पता लगेगी कि जिस समाज में हम पैदा हुए हैं, जिस राष्ट्र के हम अंग हैं उससे अलग होकर यह व्यक्तिगत आकांक्षा पूरी नहीं हो सकती। अगर कुछ हुआ भी तो वह अधूरा रहेगा। सर्वांगीण प्रगति अकेले नहीं की जा सकती। कारण, व्यक्तिगत जीवन नाम की चीज वास्तव में कोई चीज है ही नहीं। यह तो शायद शरीर का बंधन है जिसके कारण ऐसा अनुभव होता है कि 'मैं' हूँ।

    परंतु जब हमलोग 'मैं' का विचार करते हैं तो हममे से प्रत्येक सोचेगा कि यह 'मैं' क्या है?

मेरा नाम ही लीजिए। इस दीनदयाल के साथ मेरा 'मैं' जुड़ा हुआ है। इसके साथ बड़ा मोह भी है। उसका मेरा इतना संबंध हो गया है कि नींद में भी अगर कोई मेरा नाम लेकर पुकारे तो यह मेरा 'मैं' एकदम जाग जाता है। क्योंकि उसके साथ 'मैं' जुड़ा है। परन्तु यदि गंभीरता से पूछा जाए कि यह नाम आया कहाँ से, तो पता लगेगा कि समाज में यह नाम प्रचलित है, यह नाम समाज से प्राप्त हुआ है। यह नाम केवल मेरा अपना नहीं और इसलिए जिस समाज में जो जाता है, उस हिसाब से उसे नाम प्राप्त हो जाता है।

समाज से हमारा संबंध नाम के साथ ही हो जाता है। माता-पिता का संबंध जन्म से, किन्तु नाम का संबंध एकदम समाज से जुड़ गया है। आप किस समाज के हैं, क्या बोलते हैं, यह भी ज्ञात हो जाता है।

जो भाषा मैं प्रयोग कर रहा हूँ, वह मेरी नहीं, मुझे किसी ने दी है। इसे मातृभाषा कहते हैं, क्योंकि सबसे पहले माँ ही भाषा सिखाती है। परन्तु माँ अकेले नहीं है, समाज भी है।

यह भाषा समाज से आयी, विचार करने की पद्धति समाज से आयी, अच्छा-बुरा क्या है, यह समाज से आया, मेरे मन में किस चीज से समाधान होगा, यह भी समाज से आता है। समाज का एप्रिसिएशन, समाज की सराहना, आदमी को बहुत बड़ी लगती है। लोग व्यक्तिगत मान-सम्मान के भूखे रहते हैं।

राष्ट्र के गौरव में ही हमारा गौरव है। परन्तु आदमी जब इस सामुहिक भाव को भूलकर अलग-अलग व्यक्तिगत धरातल पर सोचता है तो उससे नुकसान होता है। जब हम सामूहिक रूप से अपना-अपना काम करके राष्ट्र की चिंता करेंगे तो सबकी व्यवस्था हो जाएगी। यह मूलभूत बात है कि हम सामूहिक रूप से विचार करें, समाज के रूप में विचार करें, व्यक्ति के नाते से नहीं। इसके विपरीत कोई भी काम किया गया तो वह समाज के लिए घातक होगा। सदैव समाज का विचार करके काम करना चाहिए।

हमारा आर्थिक, राजनैतिक, आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास सब कुछ समाज के साथ जुड़ा हुआ है।

हिमालय की गुहा में योगाभ्यास करके मुक्ति नहीं मिल सकती, योगाभ्यास भले ही हो जाये। मुक्ति भी व्यक्तिगत नहीं सामाजिक है, समष्टिगत है। जब समाज मुक्त होगा, ऊँचा उठेगा तो व्यक्ति भी। भगवान ने भी अवतार लिया तो धर्म की रक्षा के लिए......। भगवान कृष्ण ने तो जीवन-भर कार्य किया, उन्होंने सम्पूर्ण समाज को अपने सामने रखकर कर्म किया।

निष्कर्ष यह है कि समाज के लिए काम, भगवान का काम है। राष्ट्र की भक्ति यानि समाज की भक्ति, यही वास्तव में भगवान की भक्ति है।

वास्तव में समष्टिवाद यह धर्म है, राष्ट्रवाद यह धर्म है। व्यक्ति के लिए और व्यक्ति का ही विचार करके किया गया कार्य अधर्म है। राष्ट्र का विचार करके जो कुछ भी किया जाएगा वह धर्म होगा।

संगठित कार्यशक्ति निश्चित रूप से विजयशाली होती है। इस बात को समझकर हम चलें।सम्पूर्ण समाज मे यही एक भाव पैदा करना है। ........ राष्ट्रीयता के बाद में प्रजातंत्र आता है। राष्ट्रीयता के बाद ही हर कोई तंत्र आता है। यदि राष्ट्रीयता कमजोर पड़ी तो प्रजातंत्र चल नहीं सकता, पूँजीवाद चल सकता है, हरेक वाद चल सकता है।

सभी गड़बड़ियाँ राष्ट्रभाव के अभाव के कारण होती हैं। राष्ट्रवाद रहेगा तो पूँजीवादी भी देशहित में निर्णय लेगा। दुर्भाग्य की बात है कि इस देश के लोग इस बात का विचार नहीं करते। अपना वैभव चाहते हो तो इस बात को समझो कि यह अपना राष्ट्र है, हमें इसका विचार करना है। उसी का संस्कार अपने मन में उत्पन्न करना है। राष्ट्र के नाते जो कार्य हों सब हमे करना है। इसमें किसी प्रकार का भेदभाव उत्पन्न नहीं होना चाहिए : क्योंकि प्रवृत्ति भेदभाव उत्पन्न करती है।

हरेक अपने प्रान्त, जाति के नाते खड़ा दिखाई देता है, राष्ट्र को भूल जाते हैं। राष्ट्र का विस्मरण हुआ तो राजनीतिक दल नहीं चल सकता। आखिर राजनीति तो राष्ट्र के लिए ही है। राष्ट्र को भूल गए तो व्यापार नहीं चल सकता, राष्ट्र को भूल गए तो विद्या-बुद्धि किसी की कीमत नहीं रहेगी। राष्ट्र के स्मरण से सबका मूल्य बढ़ जाता है। राष्ट्र के नाते खड़े होने से व्यक्ति की कीमत बढ़ जाती है। राष्ट्र हित का महत्व इसी कारण होता है।

अपने देश मे बहुत से लोग मिलते हैं जो कहते हैं कि देश के लिए सबकुछ है परन्तु देश के लिए जब काम करने का मौका आता है तो कहते हैं जान हाजिर है। जान ले लीजिए, बाकी सब छोड़ दीजिए।

सच बात यह है कि हम देश के लिए सदैव कुछ भी करने को तत्पर हो सकें, यह बात सहज साध्य नहीं। इसके लिए मन पर सतत संस्कार पड़ने की आवश्यकता होती है। चार लोग मिलकर एक निर्णय से कार्य कर सकें, यह बात सहज साध्य नहीं। इसके लिए संस्कार, शिक्षण और आदत की जरुरत होती है। यदि राष्ट्रभाव हमारे सामने रहेगा तो हम सब मिलकर काम कर सकेंगे।"

तिथि 4 फरवरी, 1968 (बरेली संघ-शिविर में दिया गया अंतिम भाषण)

Saturday, April 4, 2015

आबादी के अनुसार तुलना करने पर ज़िला के सीमांकन में दिखने वाली विसंगतियां




भारत वर्ष के राज्यों के भोगौलिक ढांचे को जनगणना 2011 के आंकडों के संदर्भ में देखने से जिला के निर्धारण में  विसंगतियां ध्यान में आती हैं । हम देखते हैं की पुरे देश के 29 राज्यों, 6 केंद्र शासित प्रदेशों  और 1 (  राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र ), मिलाकर कुल 675 जिले वर्तमान में हैं जिन्हें जनगणना 2011 के कुल आबादी से हिसाब करने पर एक जिले की औसत आबादी 17 लाख 92 हजार 8 सौ 79 होती है । जबकि पश्चिम बंगाल राज्य में कुल जिले 19 हैं और वहां की कुल आबादी 9 करोड 13 लाख 47 हजार 7 सौ 36 है, यानि औसतन 48 लाख आबादी पर एक जिला । अगर राष्ट्रीय औसत से हिसाब लगाया जाए तो पश्चिम बंगाल  में जिलों की कुल संख्या 51 होनी चाहिए । इसी प्रकार आंध्र प्रदेश में 13 के स्थान पर 28, तेलंगाना में 10 के स्थान पर 20, महाराष्ट्र में 36 के स्थान पर 63, बिहार में 38 के स्थान पर 58, उत्तर प्रदेश में 75 के स्थान पर 111, केरल में 14 के स्थान पर 19, तमिलनाडु में 32 के स्थान पर 40, राजस्थान में 33 के स्थान पर 38, और कर्नाटक में 30 के स्थान पर 34 जिले होने चाहिये । 

देश के कुछ राज्य ऐसे भी हैं जहां राष्ट्रीय औसत से कम जनसंख्या होते हुए भी उसे जिला घोषित कर दिया गया । ऐसे राज्य हैं मध्य प्रदेश, उडिसा, झारख़ंड, पंजाब, हरियाणा, छत्तीसगढ, उत्तराखंड, गोवा, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम, जम्मु और काश्मीर, पुर्वोत्तर के 7 राज्य और सभी केंद्र शासित प्रदेश । ऐसे तो जिन राज्यों में राष्ट्रीय औसत से अधिक आबादी वाले जिले हैं उनमें भी कुछ जिले कम आबादी वाले हैं और जिन राज्यों में राष्ट्रीय औसत से कम आबादी वाले जिले हैं उनमें भी कुछ जिले अधिक आबादी वाले हैं । 

आंकडों को नीचे चार्ट में दर्शाया गया है :-





उपरोक्त आंकडों को देख कर विसंगतियों को समझा जा सकता है । यह माना जा सकता है कि केवल आबादी के आधार पर जिले की सीमाएं तय नही की जा सकती उसके लिए भौगोलिक क्षेत्र की बनावट, वहां की आंतरिक व बाह्य सुरक्षा, जलवायु, आदि अन्य परिस्थिती,  जैसे पहलुओं पर भी विचार किया जाता है । किंतु यह भी सत्य है की जब जिले की घोषणा हो जाती हैं तो उस जिले में विद्युत, पेयजल, शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात व्यवस्था, न्यायालय, आदि कुछ मौलिक सुविधाओं में बढोतरी के तरफ सरकार का ध्यान स्वाभाविक बढ जाता है । जिससे नागरिकों को गुणवत्तायुक्त सुविधा मिलने से उनके बहुत से कष्टों का निवारण हो सकता है । 



Wednesday, March 11, 2015

राष्ट्र हित में महत्वपुर्ण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा

दिनांक 13 से 15 मार्च तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा (ABPS) नागपुर में हो रही है । इस प्रतिनिधि सभा में संघ की अखिल भारतीय कार्यकारिणी के अलावा संघ विचार धारा से चलने वाले विविध संगठनों के भी स्वयंसेवक प्रतिनिधि, संघ की क्षेत्र कार्यकारिणी और प्रांत कार्यकारिणी (संघ की दृष्टि से पुरे भारत वर्ष को 11 क्षेत्र और 41 प्रांत में विभाजित किया गया है), चुने गए अखिल भारतीय प्रतिनिधि एवं विश्व विभाग के चुने हुए कार्यकर्ताओं के अलावा सभी विभाग प्रचारक आमंत्रित सदस्य के रूप में वर्ष में एक बार भाग लेते हैं । प्रत्येक 3 वर्ष में एक बार मा. सरकार्यवाह का चुनाव होता है इस दृष्टि से भी इस बार की बैठक को महत्वपुर्ण माना जा रहा है । इस बैठक में संघ और विविध संगठनों के प्रतिनिधि अपने-अपने संगठनों की गतिविधि का वर्तमान स्वरूप सभी प्रतिनिधियों के सामने बताते हैं, इसके साथ ही बैठक में देश की वर्तमान परिस्थितियों के बारे में भी विचार विमर्श किया जाता है । 

इसके पुर्व के वर्षों में इस प्रकार की बैठक में पारित प्रस्तावों की जानकारी के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें

अब प्रश्न उठता है की संघ की बैठक में इस प्रकार के चिंतन का देश हित में क्या परिणाम होगा । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मानना है की संघ कुछ नही करेगा और स्वयंसेवक कुछ नही छोडेगा । संघ केवल स्वयंसेवक तैयार करेगा जो कि केवल अपने स्वयं के हित का विचार न करते हुए देश हित में जीवन जीने का व्यवहार प्रदर्शित करेगा । आज हम यह देखते हैं की व्यक्तिगत जीवन में तो व्यक्ति स्वार्थ से वसीभूत होकर दूसरे को त्याग करने का उपदेश दे रहा है । ऐसे समय में देश हित का जीवन जीने वाले लोग अगर कुछ सकारात्मक विचार करते हैंं तो उस पर समाज का विश्वास अधिक और शीघ्र होता है । वर्ष 2013 की बैठक में संघ ने सरकार को सुझाव दिया था  कि ' बंगलादेश और पाकिस्तान के उत्पीडित हिंदुओं की समस्याओं का निराकरण करें ' वैसे हि वर्ष 2012 की बैठक में ' राष्ट्रीय जल-नीति प्रारूप-2012 पर पुनर्विचार आवश्यक ' ऐसा प्रस्ताव पारित कर जन हित में सरकार पर दबाव बनाने का कार्य किया था । हम कह सकते हैं कि तत्कालीन केंद्र सरकार संघ के दबाव में राष्ट्रीय जल-नीति प्रारूप-2012 सदन में पारित नही करा सकी । 

इस बैठक में लगभग 1400 प्रतिनिधि की उपस्थिति अपने आप में सरकार से हटकर एक अलग संसद है जो की राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्र नीति का विचार करती है । इतनी बडी संख्या में कार्यकर्ता जब एक साथ जुटते हैं तो उनके उत्साह में वृद्धि होती है, बाहरी वातावरण चुंकि स्वार्थ से वसीभूत है वैसी स्थिति में त्याग का स्वयं का आचरण बनाये रखने में भी इस प्रकार के सम्मेलन का लाभ होता है । देश की विडम्बना यही है की जो लोग आज शारीरिक, बौद्धिक या आर्थिक रूप से ज्यादा समृद्ध हैं वैसे ही लोग स्वार्थ से भी वसीभूत हैं जिसके चलते नीति निर्धारक, व्यवहार में जनहित को हि दांव पर लगाते दिखते हैं । देश हित तथा जनता का हित ही इस बैठक की सर्वोच्च प्राथमिकता है । आये हुए प्रतिनिधियों का दृष्टिकोण व्यापक बनाना भी इस बैठक का उद्देश्य है जिससे प्रतिनिधि अपने कार्यक्षेत्र में जाकर व्यापक उद्देश्य के आधार पर जन जागरण के कार्यक्रम चला सके । 

Tuesday, January 13, 2015

Wednesday, December 17, 2014

मिडिया का वर्तमान स्वरूप तथा राष्ट्रीय भावना के निर्माण में उसकी भूमिका

 भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अनुसार सूचना विभाग के अंतर्गत गवेषणा, संदर्भ और प्रशिक्षण प्रभाग ( Research, Reference & Training Division ), प्रकाशन विभाग ( Publication Division ), गीत व नाटक प्रभाग ( Song & Drama Division ), भारत के समाचारपत्रों के पंजीयक का कार्यालय ( Registrar Of Newspaper For India ), पत्र सूचना कार्यालय ( Press Information Bureau ), भारतीय प्रेस परिषद ( Press Council Of India ), भारतीय जन संचार संस्थान ( Indian Institute Of Mass Communication ), फोटो प्रभाग ( Photo Division ), विज्ञापन एवं दृश्य प्रचार निदेशालय ( Directorate of Advertising & Visual Publicity ), क्षेत्रीय प्रचार निदेशालय ( Directorate of Field Publicity ), भारतीय सूचना सेवा ( Indian Information Service ), तथा न्यू मीडिया विंग ( New Media Wing ) काम कर रहे हैं । साथ ही प्रसारण विभाग के अंतर्गत काम करने वाली संस्थायें - प्रसारण इंजीनियरिंग कंसल्टेंट्स इंडिया लिमिटेड ( Broadcasting Engineering Consultants India Limited ), इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मॉनिटरिंग सेंटर ( Electronic Media Monitoring Centre ), प्रसार भारती ( Prasar Bharti ),  इसके अलावा फिल्म जगत के--- फिल्म प्रमाणन अपीलीय न्यायाधिकरण ( Film Certification Appellate Tribunal ), भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान ( Film and Television Institute of India ), सत्यजीत रे फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ( Satyajit Ray Film and Television Institute ), चिल्ड्रन फिल्म सोसायटी, भारत ( Children's Film Society, India ), फिल्म प्रभाग ( Films Division ), फिल्म समारोह निदेशालय ( Directorate of Film Festivals ),  राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय ( National Film Archives of India ), केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड ( Central Board of Film Certification ), भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव ( International Film Festival of India ), राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम ( National Film Development Corporation ) संस्थान भी सूचना और प्रसारण मंत्रालय के ही अंतर्गत है । 
भारत सरकार द्वारा उपरोक्त सभी विभागों की योजना निश्चित रूप से मिडिया के ही हिस्से हैं या उसकी व्यवस्था को सुचारु ढंग से चलाने के लिए स्थापित किए गए हैं, जो की भारतवर्ष में एक विशाल स्वरूप धारण किये हुए हैं । इन सब के अलावा भी निजी तौर पर विभिन्न प्रकार के दबाव समूह या आपसी मेल-जोल वृद्धि हेतु भी बहुत से संगठनों का निर्माण हुआ है जो की मिडिया की विशालता को और बढाता है । 
भारत के समाचारपत्रों के पंजीयक का कार्यालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक 31 मार्च 2014 को लगभग एक लाख प्रकाशन पंजिकृत हैं जिनके द्वारा लगभग 45 करोड 6 लाख प्रति (वर्ष 2013-14 में) प्रत्येक पंजिकृत पत्र-पत्रिका की प्रकाशित हो रही है । इसके साथ ही लगभग 800 टीवी चेनेल, आकाशवाणी के अलावा लगभग 250-300 एफ.एम. रेडियो स्टेशन से विभिन्न भाषा में कार्यक्रमों का भारतवर्ष में प्रसारण किया जा रहा है । आंकडो में अगर प्रिंट, इलेक्ट्रोनिक या इंटरनेट मिडिया की पुरी जानकारी देने का प्रयास करें तो शायद इसके लिए बहुत बडा स्थान लेख में देना होगा जो कि यहाँ बहुत आवश्यक नही समझता हूँ । 
मिडिया  जनता को समाज में हो रही घटना की जानकारी उपलब्ध कराता है साथ ही लोगों के मन में संवेदना या निष्ठुरता के भाव का निर्माण करता है । लोगों का मनोरंजन करता है तो ज्ञान का भंडार भी इसमें समाहित है ।मिडिया ही है जो नई पीढी में (छोटे-छोटे बच्चों में, युवाओं में) आज वृहद गति से विकास ला रहा है । मिडिया जन मानस में कुछ नकारात्मक बातों को भी परोस रहा है जो की जन भावनाओं को गलत दिशा में ले जा रहा है । यह बात सही है की इस प्रकार के जन संचार माध्यम को खडा करने में व्यापारिक दृष्टि से बहुत बडी पुंजी का निवेश करना होता है और यदि रियल स्टेट की तरह अगर हम इससे लाभ प्राप्त करने की अपेक्षा करें तो आज के दौर में वही होगा जो आज मिडिया के बंधु कर रहें हैं । जो मिडिया समाज को एक नई दिशा दे सकता है वही समाज को उजाड भी सकता है इस चिंतन को ध्यान में रखते हुए अगर मिडिया में कार्यरत बंधु सेवा भाव से काम करें तो देश को विश्व पटल पर ऊंचे स्थान पर ले जाने में यह अहम भूमिका निभा सकता है । छोटी-छोटी बातों की तरफ इंगित न करते हुए यह कहना उचित समझता हूँ कि मिडिया क्षेत्र में कार्यरत बंधु स्व-विवेक से जब सकारात्मक विचार करेंगे और केवल राजनीतिक दृष्टिकोण से ही विचार नही करेंगे तब यह कहा जा सकेगा की इस देश में मिडिया में नए युग की शुरुआत हुई है । विदेश से जो पुंजी निवेश किए बंधु हैं वो भी विश्व बंधुत्व को अगर स्थापित करना चाहते हैं तो केवल व्यापारिक दृष्टिकोण से संचार क्षेत्र में कार्य ना करें क्योकि कहा है 'एकं विसर्सो हन्ति शस्त्रे ने कश्च वद्यते स राष्ट्रं स प्रजं हन्ति राजानं मंत्र विप्लवः'
विष पीने से कोई एक व्यक्ति मारा जाता है, शस्त्र के प्रहार से भी कोई एक हि व्यक्ति की मृत्यु होती है किन्तु वैचारिक भ्रांति होने पर राजा एवं प्रजा के सहित सम्पुर्ण राष्ट्र का विनाश सम्भव है । 

Tuesday, October 28, 2014

संघ के स्वयंसेवक और प्रचारक बनने के दो महत्वपुर्ण क्षण

बात  1982 की है जब मै  कोयरी टोला प्राथमिक विद्यालय,  रामग़ढ कैंट में कक्षा  5 का छात्र था । रामगढ में ही गांधी स्मारक उच्च विद्यालय के प्रांगण मे प्रभात शाखा लगती थी जिसमें अच्छी संख्या में तरुण, बाल, शिशु स्वयंसेवकों की उपस्थिति रहती थी । शाखा पर मस्ती भरे खेल के आयोजन के साथ  व्यायाम, योगासन, सूर्यनमस्कार आदि शारीरिक एवं गीत, चर्चा, बोधकथा आदि बौद्धिक कार्यक्रम होते थे । पांच भाइयों में से मेरा क्रम अंत का यानि सबसे छोटा है। मेरे मंझले भैया भी नियमित रूप से शाखा जाया करते थे । उन्ही के साथ-साथ मै भी संघ शाखा पर जाने लगा । मेरे पिताजी भी नियमित रूप से मुझे जगा दिया करते थे जिससे मै सही समय पर शाखा पर पहुंच सकू । प्रारम्भ मे मेरे उपर कोई दायित्व नही था और शाखा पर किसी प्रवासी कार्यकर्ता ने मेरे से पुछा कि आपपर क्या दायित्व है तो मैंने कहा कि 'गण शिक्षक' तब मंडल मे बैठे सभी अन्य स्वयंसेवक हंसने लगे । इसपर मुझे बहुत ग्लानि हुई और मै दायित्व लेकर काम करने के लिये उत्सुक हो गया ।
थोडा छोड-छोडकर संघ में मेरी सक्रियता नियमित बनी रही । 1991 में प्रथम वर्ष संघ शिक्षा वर्ग -हजारीबाग में, 1993 में द्वितीय वर्ष- धनबाद- टुंडी में, करके 1996 में तृतीय वर्ष करते समय पुजनीय रज्जु भैया के साथ ऐसे कार्यकर्ताओं की एक बैठक हुई जो आगे चलकर संघ के पुर्णकालिक प्रचारक के रूप में समय देंगे । मै भी उस बैठक में भाग लिया और वहाँ से लौटकर  दक्षिण बिहार प्रांत के प्रथम वर्ष के वर्ग में लोहरदगा के पास नवडीहा में  10 दिन शिक्षक की भूमिका में रहा । वर्ग के बाद प्रचारक विस्तारक बैठक में मुझे गढवा का तहसील विस्तारक बनाया गया । शायद  गढवा में संघ कार्य के लिए ईश्वर मेरे साथ नही थे । मै वहाँ केवल डेढ माह रहा और घर लौट आया । 1994 में वाणिज्य विषय से रामगढ महाविद्यालय से स्नातक करके मै व्यवसाय में भी लगा रहा था सो गढवा से लौटकर मै पुन: व्यवसाय में लग गया ।

1997 के फरवरी माह में संघ की रांची जिले की ( संघ की दृष्टि से रामगढ उस समय रांची जिले मे ही था ) बैठक मारवाडी धर्मशाला, रामगढ में आयोजित थी ज़िला कार्यवाह जगभरत जी ने मुझे बैठक की व्यवस्था का दायित्व सौंपा और बिना पुर्व सुचना के बैठक में भी बैठने का आग्रह किया । उसी बैठक में मुझे रामग़ढ के नगर कार्यवाह का दायित्व दिया गया।

1998 में धुर्वा, रांची में संघ शिक्षा वर्ग में मै शिक्षक के नाते गया था वहीं से मै पुन: प्रचारक के रूप में ( धनबाद के नगर विस्तारक के नाते ) संघ का पुर्णकालिक निकला । तब से अभी तक कुछ अवकाश लेकर अपनी लौकिक शिक्षा का विस्तार भी किया। लोक प्रशासन विषय से IGNOU  से स्नातकोत्तर और रांची विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान विषय से एम.फिल भी किया । गिरिडीह के ज़िला प्रचारक, 3 स्थान पर विभाग प्रचारक रहने के बाद झारखंड प्रांत प्रचार प्रमुख और वर्तमान में सह प्रांत प्रचार प्रमुख , दक्षिण बिहार के नाते अभी भी कार्य में लगा हुं। 

Monday, August 18, 2014

अपने ही बुने जाल मे फंसता धनाढ्य समाज

अपने ही बुने जाल मे फंसता धनाढ्य समाज 

व्यष्टि, समष्टि, सृष्टि और परमेष्टि चार भागों मे यह ब्रह्मांड है । व्यक्तियों के समूह को समाज कहा गया । प्रत्येक व्यक्ति अपने बारे मे, अपने परिवार के बारे मे सोचे यह उचित ही है । चुंकी अपने बारे मे नही सोचने से अपना जीवन नही चल सकता किंतु हम कभी भी समाज के बगैर अपने आप को आगे नही बढा सकते, समाज के बगैर न  ही हमारा विकास हो सकता है । आज देश मे समाज जन मे आर्थिक विषमता बहुत तेजी से बढ रही है । एक वर्ग आर्थिक तंगी के कारण मानव जीवन के लिए मूलभूत आवश्यक रोटी, कपडा और मकान के लिए भी परावलम्बी हो चुका दिखता है । दूसरी और एक वर्ग ऐसा भी है जिनके आय के साधन प्रचूर हैं । दूसरे ऐसे धनाढ्य वर्ग के आय के स्रोत एवं उनके द्वारा उसके व्यय के तरीके पर यहाँ मै अपने दृष्टिकोण से विचार करुंगा । 

(क)  धनाढ्य वर्ग के आय के स्रोत ;- 
1. प्रकृति के शोषण के साथ उद्योग
2. नैतिकता की गिरावट के साथ राजनीति
3. नकारात्मक प्रस्तुतिकरण एवं व्यवसायिकता के साथ ( पत्रकारिता ) समाचार सम्प्रेषण
4. संस्कृति पर आक्रमण के साथ बुद्धिजीवी
5. कामुकता की और बढता फिल्म जगत
6. व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा मे लिप्त खिलाडी
7. शिक्षा का व्यवसायीकरण
8. स्वास्थ्य रक्षण के नाम पर लूट
9. एकाधिकार की तरफ बढते कारोबारी
10. धार्मिक आस्था केंद्रों पर राजनीति
11. रक्षक ही भक्षक ( सुरक्षा, चिकित्सक, न्यायालय )
12. उपरोक्त को प्रत्यक्ष - अप्रत्यक्ष मदद पहुंचाकर

  • उद्योग ;- मानव जीवन की आवश्यकताओं को पूर्ण करने मे उद्योग की बहुत बडी भूमिका है किंतु आज उद्योगपति के मन की संवेदना घट रही है । उद्योग में काम करने वाले मजदूर की तुलना मशीनों से की जा रही है । तकनीकी विकास के बलबूते मनुष्य और प्रकृति दोनों का शोषण उद्योगपति द्वारा चल रहा है । 
  • राजनीति ;- समाज हित में सोचने वाले न्यूनतम और समाज की कमजोरी के आधार पर लूटने वाले अधिकतम राजनेता खडे हो रहे हैं । अधिकतम नेता की यही चाहत है कि समाज द्वारा अर्जित धन बांटने के लिए जब वे खडे हों तो  भीखारी जैसे जनता उनके सामने खडे होकर सभा की भीड बढाते रहें । चाहे वे नेता भ्रष्टाचार मे आकंठ डूबे रहें । दूसरी बात अपनी सुविधा बढाने मे जनता की गाढी कमाई से उनको कोई मोह नही ।
  • समाचार सम्प्रेषण ( पत्रकारिता ) ;- समाचार जगत मे बडे पुंजीपति का प्रवेश होने और विज्ञापन प्राप्त करने के लिये कारोबारी, उद्योगपति, कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका, फिल्म जगत, शिक्षा जगत, चिकित्सा जगत की खामियों की जानकारी रखने मे ध्यान, जिसके बलबूते विज्ञापन की राशि वसूली जा सके । सांस्कृतिक आक्रमण करने से विदेशी आशीर्वाद मिलने की सम्भावना ।
  • बुद्धिजीवी ;- स्वाध्याय न प्रमद; की सोच रखने वाले भारत के बुद्धिजीवी आज विदेशी इशारे पर इस देश की सांस्कृतिक धरोहर ( सत्य, अहिंसा, त्याग, दान, सेवा, परोपकार आदि ) को छोडकर पाश्चात्यकरण में अपनी कलम चला रहे हैं और उसके माध्यम से धन अर्जित कर रहें हैं ।
  • फिल्म जगत :-  आज कम से कम कपडे में नायिका को प्रस्तुत करना यह प्रचलन बढ रहा है नशा करते हुए दृश्य बनाना यह सब निर्माताओं द्वारा इसलिये चल रहा है क्योंकि जनता इस बात पर अधिक खर्च करने मे रुचि लेती है ।
    खिलाडी :- सरकारी बजट का ज्यादा हिस्सा जिस खेल मे व्यय होता है उसी खेल के प्रति जनता का आकर्षण बढता है आज विदेशों मे विकसित खेल को ही अपने देश मे प्रचलित करने का विशेष आग्रह राजनितिकों द्वारा रखा जा रहा है जिसमें प्रतियोगिता पुर्ण दृष्टिकोण होने के कारण प्रत्येक खिलाडी का महत्वाकांक्षी होना स्वाभाविक है ।
    शिक्षा :- आज व्यवसायिक शिक्षा के प्रति समाज का रुझान बढा है जिसको देखते हुए शिक्षाविद अब दुकानदारी मे उतर गए हैं । तकनीकि शिक्षा में भारी भरकम खर्च को तैयार अभिभावकों की जेब खाली करवाने में तकनीकि संस्थान होड मचाये हुए हैं ।
    स्वास्थ्य :- जन समुदाय ने आज अपनी दिनचर्या को इस प्रकार बिगाड लिया है कि उनकी बिमारी दिनोंदिन बढ रही है । सभी चाहते हैं कि जल्द से जल्द स्वास्थ्य को तात्कालिक लाभ पहुंचाकर अपनी दिनचर्या मे वापस लौट सकें । इस कारण वे चिकित्सा से अधिकतम शोषित हो रहे हैं । जन-जीवन मे लोग शारीरिकसे दूर हो रहे हैं जो चिकित्सकों के लिए एक मौका हो गया है वे लाभ ले रहें हैं ।
    कारोबारी :- प्रत्येक व्यवसायी चाहते हैं कि बाज़ार में उत्पादन पर उनका एकाधिकार रहे आज नेटवर्क व्यवसाय और मॉल मे सदस्य ग्राहक बनाकर लुभावनी व्यवस्था बनाई जा रही है अन्य क्षेत्रों में भी इसी प्रकार एकाधिकार का प्रयास चल रहा है जिसके कारण पुंजी का केंद्रीकरण हो रहा है ।
    धार्मिक आस्था  केंद्र :- पुरी दुनिया में फैले भारतीय, विभिन्न मठ-मंदिरों में अपनी मन्नत पुरी होने पर चढावा चढाते हैं वैसे अधिकतम केंद्रों पर चुंकी सरकारी हस्तक्षेप हो रहा है जिसके चलते वहां राजनीति को बढावा मिला है । पुर्व में विकसित जन्माधारित पुजकों की व्यवस्था में भी आपसी संघर्ष होने के चलते वर्तमान व्यवस्था विकसित हुई है ।
    रक्षक ही भक्षक :- स्वास्थ्य रक्षा में लगे चिकित्सक, देश के आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा  में लगे सुरक्षाकर्मी एवं न्यायालय में बैठे न्यायाधीश भी इस दायरे में आ रहे हैं । नैतिकता में गिरावट ही इस परिस्थिति का मूल कारण है ।
    उपरोक्त को प्रत्यक्ष/ अप्रत्यक्ष मदद पहुंचाकर भी लोग धन अर्जित कर रहें हैं ।
    (ख) धनाढ्य वर्ग के व्यय के तरीके:-
    1. नई पीढी के व्यवसायिक शिक्षा पर व्यय
    2. आलीशान मकान पर व्यय
    3. आडम्बरयुक्त विवाह पर व्यय
    4. पर्यटन पर व्यय
    5. स्वास्थ्य रक्षण पर व्यय
    6. दिखावा – वस्त्र, आभूषण, वाहन, साज सज्जा, इलेक्ट्रीक, इलेक्ट्रोनिक
    7. धार्मिक आस्था केंद्रो पर व्यय
    8. सेवा प्रकल्प पर व्यय
    9. नशा में व्यय
    10. व्यभिचार में व्यय
    11. भोजन पर व्यय
    12. माफिया/गुंडा तत्व के पोषण पर व्यय
    13. आपसी संघर्ष के निपटारे पर व्यय
    14. सरकारी कर
    15. राजनेता पर व्यय
    16. मनोरंजन पर व्यय
    वैसे तो मनुष्य जीवन के लिए अति आवश्यक रोटी, कपडा, मकान, संस्कारयुक्त शिक्षा, स्वास्थ्य है । लेकिन धनाढ्य वर्ग ने अपनी अतिरिक्त आय के व्यय हेतु विभिन्न रास्ते बना लिए हैं ।
    ·        नई पीढी के व्यवसायिक शिक्षा पर व्यय :- आज प्रत्येक अभिभावक अपनी संतान को व्यवसायिक शिक्षा दिलवाने पर अपनी आय का एक बडा हिस्सा खर्च कर रहे हैं । अभिभावक की चाहत है कि मेरी संतान आय के किसी भी प्रकार के स्रोत खडे करे ।
    ·         आलीशान मकान पर व्यय :- मकान का आकार कितना बडा है यह आज समाज में प्रतिष्ठा का विषय बन गया है चाहे उस मकान की परिजनों को रहने के लिए आवश्यकता हो या नही । चाहे उसके रख-रखाव के लिए अधिक खर्च करना पडे ।
    ·         आडम्बरयुक्त विवाह पर व्यय :- विवाह के प्रीति भोज पर कितने लोगोंको अतिथि नाते बुलाया और कितना खर्च किया यही प्रतिष्ठा का विषय हो गया है । विवाह पर होने वाली फूलों की सज्जा, विद्युत उपकरण की सजावट, रंगमंचीय नृत्य, गाजा-बाजा, दहेज इन बातों पर होने वाले व्ययके कारण तो कभी-कभी धनी व्यक्ति भी चिंता की मुद्रा में आ जाता है किंतु लोक-लज्जा के चलते यह सब आवश्यक समझता है ।
    ·         पर्यटन पर व्यय :- आज देश के यातायात साधनों में लगातार वृद्धि हो रही है । यात्रा हेतु विमानों की, रेलगाडियों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है । घुमने से बुद्धि का विकास होता है लेकिन इसका कोई अंत भी नही है । पर्यटन में दिखावे पर व्यय अधिक हो रहा है ।
    ·        स्वास्थ्य रक्षण पर व्यय :- चिकित्सकों में प्रामाणिकता की कमी के कारण अधिक खर्च करके धनी व्यक्ति अपने आपको स्वास्थ्य रक्षण में संतुष्ट पाता है ।
    ·        दिखावा :- वस्त्र, आभूषण, साज-सज्जा, घरलु उपकरण, बिजली उपकरण, इलेक्ट्रोनिक उपकरण, एवं वाहन इन सभी में अपने आर्थिक स्तर से व्यक्ति दिखावे में खर्च कर रहा है जो अनेक प्रकार की नई परेशानी भी खडी कर रहें हैं।
    ·        धार्मिक आस्था केंद्रों पर व्यय :- चढावा, मंदिर निर्माण, धर्मशाला निर्माण, आदि केंद्रों के विस्तार में समाज खर्च कर रहा है । मेरा ख्याल है मंदिरों की रचना उतनी ही करनी चाहिए जितने की स्वच्क्ष्ता एवं पूजन व्यव्स्था जीवन भर निभाई जा सके न कि किसी जमीन पर कब्जे के उद्देश्य से यह प्रक्रिया हो फिर भी कुछ निर्माण कार्य समाज हित में हो रहे हैं।
    ·        सेवा प्रकल्प पर व्यय :- कुछ धनी जन सेवा पर अपनी आय का कुछ हिस्सा व्यय कर रहे हैं यह अच्छी बात है । सेवा की आड में अपनी महत्वाकांक्षा को छुपाकर रखने वाले भी कुछ लोग हैं उनका दृष्टिकोण बदले यह आज के समय की मांग है ।
    ·        नशा :- आज शिक्षित समाज भी नशा में आगे है इसके कारण स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल असर पड रहा है । फिर भी नशा आज आम जनता में फैला है उसमे धनाढ्य भी पीछे नही हैं ।
    ·         व्यभिचार पर व्यय :- कामुकता एवं अन्य बातोंपर धनाढ्य वर्ग व्यय कर रहा है समाज को आचरण का पाठ पढाने वाले भी इसके नजदीक जा रहे हैं । जिससे लोग भ्रमित हो रहे हैं ।
    ·         भोजन पर व्यय :- सामान्य भोजन तो प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है किंतु स्वास्थ्य को हानि पहुंचाने वाले व्यंजन आज प्रचलित हो गए हैं जिसपर समाज का दोतरफा व्यय बढा है ।
    ·        माफिया / गुंडा तत्व के पोषण पर व्यय :- कुछ धनपतियों के द्वारा अपने स्वार्थ के लिए पोषित माफिया / गुंडा तत्व बाद में अपना नेटवर्क बनाकर समाज के लिए परेशानी पैदा कर रहें हैं । इस प्रकार की गतिविधि में आज भी समाज का काफी धन व्यय हो रहा है ।
    ·         आपसी संघर्ष के निपटारे पर व्यय :- न्याय व्यवस्था की वर्तमान प्रणाली में धनी व्यक्ति अपनी बात मनवाने में धन का दुरुपयोग कर न्याय पर प्रभाव डालता है जिससे गरीब की समस्या बढ रही है ।
    ·        सरकारी कर :- धनाढ्य वर्ग अपनी आय का एक हिस्सा सरकार को कर के रूप में अदा करते हैं बाद में उनकी अपेक्षा रहती है कि इस धन के व्यय में भी उनकी इच्छा जानी जाए ।
    ·        राजनेता पर व्यय :- अपनी पहचान बढाने के लिए धनी लोगों के एक वर्ग द्वारा राजनेता को भी खुश करने का प्रयास चलता है जिससे सत्ता में आने पर उनसे अपने स्वार्थ अनुसार नीति निर्धारण करवाई जा सके ।
    ·        मनोरंजन पर व्यय :- मनोरंजन पर व्यय करने से अपना मन प्रसन्न रहता है परंतु मनोरंजन को फूहडता से जोडना यह धनी वर्ग द्वारा तेजी से हो रहा है ।

    समाज में अमीर-गरीब का होना स्वाभाविक है सभी उंगलियां कभी समान नही हो सकती किंतु यह अनुपात बढ रहा है जो चिंता का कारण है । काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर मनुष्य के छ: शत्रु हैं इनके बढने से सामाजिक असंतुलन बढेगा और इनके न रहने से समाज नहीं चल सकता । उपरोक्त धनी वर्ग के आय-व्यय के स्रोत से ध्यान में आता है कि उनके स्वास्थ्य में गिरावट, उनपर असामाजिक तत्व का दबाव, उनपर राजनेता का दबाव लगातार बढ रहा है । उनके घर का कलह भी बढ रहा है चुंकि संतोष की भावना का लोप होते हुए भोग वादी जीवन की कामना बढ रही है । इन सब बातों को लिखने का मेरा मकसद यह नही कि समस्या ही बताई जाए मै चाहता हुं समाधान की दिशा में चिंतन एवं व्यवहार में भी सकारात्मक योगदान करें ।

    दूसरे के दु:ख को देखकर जो खुश हो                          - नर राक्षस
    दूसरे के दु:ख को देखकर जो न दु:खी हो, न खुश हो             - नर पशु
    दूसरे के दु:ख को देखकर जो दु:खी तो हो लेकिन करे कुछ नहीं     - नर
    और दूसरे के दु:ख को देखकर सेवा के लिए खडे हो जाए          - नरोत्तम

    इस प्रकार चार प्रकार के लोग दुनिया में हैं प्रत्येक व्यक्ति उत्तरोत्तर नरोत्तम बनने की और अग्रसर हो यह आज के समय की मांग है । जिससे विश्व बंधुत्व स्थापित हो सके ।

    लक्ष्मण भावसिंहका
    धनबाद
    फाल्गुन  शुक्ल पंचमी
    युगाब्द- 5109